यह कहानी है उस बिहार की… जहाँ राजनीति जात से शुरू होती है — और जात पर ही खत्म हो जाती है। जहाँ सत्ता सिर्फ़ कुर्सी नहीं, बल्कि चंद परिवारो की जागीर बन चुकी । है ! ये वही बिहार है ..जहाँ बीजेपी आज तक अपने दम पर सरकार नहीं बना सकी। जिस बिहार ने कांग्रेस को 40 साल .लालू को 15 साल .और नितीश को 20 साल.दिए ..उस बिहार की जनता ने बीजेपी पर भरोसा नहीं किया ? चेहरे बदले, पार्टियाँ बदलीं, गठबंधन भी बदले — लेकिन बिहार और बिहर की जनता की तकदीर नहीं बदली।...कभी लालू के जंगल राज में फंसकर , तो कभी नितीश के शुशन राज के झांसे में आकर ... बिहरी बदहाल होते रहे, और नेता मालामला होते रहे ..बिहार की सियासत में, लड़ाई सिर्फ़ कुर्सी की नहीं. है ..ये संपत्ति, सत्ता और साज़िश का खेल है। यहाँ नेता जनता की किस्मत नहीं बदलते —बस अपनी ज़मीनें, बंगले और बैंक बैलेंस बदलते हैं।”
सवाल ये नहीं की बिहार में सरकार ..किसकी बनेगी... कौन बिहार का सीएम बनेगा ....सवाल तो ये है की आखिर बिहार कब बदलेगा ? क्या कोई ऐसा नेता आएगा जो जात से ऊपर उठकर बिहार की जनता की बात करेगा ? या फिर… इतिहास एक बार फिर खुद को दोहराएगा — वही नारे, वही चेहरे, वही धोखे...बस साल नया होगा, और उम्मीदें फिर अधूरी रह जाएँगी। .... सवाल इस बात का भी है.. की आजादी के 78 साल बाद भी .. BJP आज तक अपने दम पर बिहार में सरकार क्यों नहीं बना पाई? वो पार्टी जो दिल्ली की गद्दी पर दशकभर से बैठी है,जिसने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात जैसे बड़े राज्यों में एकतरफ़ा राज कायम किया —वही बिहार में हर बार किसी और की बैसाखी पर क्यों टिकी रहती है? क्या वजह है कि बिहार में भाजपा आज भी “सहयोगी” है, “सरकार” नहीं? चलिए इस विडियो में समझते है ...
इस सवाल का जवाब ...... ढूढने के लिए हमें 70 साल पुराने उन इतिहास के पन्नों को पलटना होगा....जिसमे बीजेपी के हार की कहानी छिपी है वर्ष 1952 में जब बिहार में पहली बार लोकतंत्र के चुनाव हुए ..तो कांग्रेस ने 330 में से 239 विधानसभा सीटो पर जीत दर्ज की और बिहार के पहले मुख्यमंत्री ‘श्रीबाबू बने भाजपा तब जन्मी भी नहीं थी — जनसंघ के नाम से बस विचार की लौ जल रही थी। फिर आया 1967 — जब जनसंघ ने 271 सीटों पर लड़ा, पर जीत सिर्फ़ 26 पर मिली।पार्टी ने पहली बार “जात के पार हिंदुत्व” का नारा दिया,लेकिन बिहार में जात ही सबसे बड़ा धर्म बन चुकी थी। ब्राह्मण, भूमिहार, यादव, कुर्मी, मुसलमान — हर वर्ग अपने नेता की जात देखता था, पार्टी की नहीं।
1990 में जब लालू यादव का दौर शुरू हुआ, तो बिहार में राजनीति का समीकरण पूरी तरह बदल गया। लालू की राजनीति ने समाज को दो हिस्सों में बाँट दिया पिछड़ा बनाम सवर्ण।और भाजपा सवर्णों की पार्टी बनकर सीमित रह गई। लालू ने मुस्लिम–यादव गठजोड़ से एक ऐसा सामाजिक किला बनाया जिसे भाजपा आज तक भेद नहीं सकी। 2014 के बाद जब पूरे देश में नरेंद्र मोदी की लहर चली, तब भी बिहार में भाजपा अकेले 122 सीटें जीतने के बाद बहुमत से दूर रह गई। जातीय गणित यहाँ भी दीवार बन गया —कमल खिला, मगर आधा ही। 2020 में जब एनडीए सत्ता में लौटा,तब भी भाजपा को सरकार नीतीश के कंधे पर ही बनानी पड़ी।और अब, 2025 के मुहाने पर खड़ा बिहार फिर वही सवाल पूछ रहा है —क्या भाजपा कभी यहाँ अकेले सरकार बना पाएगी?
भाजपा ने हमेशा हिंदुत्व और विकास — की दोहरी पिच पर अपनी सियासत चलाई है ..लेकिन बिहार में ये फॉर्मूला कभी ट्रैक पर नहीं आया। यहाँ मतदाता पार्टी नहीं, अपने जात वाले नेता को चुनता है —और यही सबसे बड़ी दीवार है जिसे भाजपा आज तक नहीं तोड़ सकी। भाजपा की दूसरी बड़ी कमी — स्थानीय चेहरा न होना। पिछले 25 सालों में पार्टी बिहार से कोई “मुख्यमंत्री-मैटेरियल” तैयार ही नहीं कर पाई जो मुख्यमंत्री पद का चेहरा बन सके। हर बार भाजपा किसी और के कंधे पर चढ़कर सत्ता तक पहुँची।है और यही बिहार की सियासत की सबसे बड़ी विडंबना है — है जहाँ भाजपा के पास सत्ता की चाबी तो है,मगर दरवाज़ा खोलने की अनुमति हमेशा किसी और के पास रही।
लेकिन अब वक्त बदल रहा है। बिहार की जातियाँ थक चुकी हैं, गठबंधन टूट चुके हैं, और जनता अब नेता नहीं, विकल्प ढूँढ रही है। लालू यादव जैसे नेता जो खुद को गरीबों का मसीहा’ कहते है..अब देश के सबसे बड़े घोटालों में फंस चुके है..“पटना की गलियों से लेकर दिल्ली की बंगलों तक लालू यादव का नाम घोटालों की हर फ़ाइल में दर्ज है।” न सिर्फ लालू बल्कि पूरा लालू परिवार ही घोटलो की रेस में दौड़ रह है.. ED के मुताबिक लालू परिवार की कुल ₹600 करोड़ की ऐसी सम्प्प्ती है जो संदिग्ध है । जो उन्ही बिहारियों के खून से सनी हुई है ..जिनके दम पर लालू यदाव सत्ता के सिंघ्सन तक पहुचे थे..जो नेता कभी ‘समाजवाद’ की बात करता था, अब वो करोड़ों के महलों में रहता है —और जनता आज भी किराए के कमरों में है।.लालू परिवार का ये चेहरा अब बिहर की जनता पहचान चुकी है .और ये मौक़ा बीजेपी के लिए गोल्डन चांस है . जो उसे बिहार की सत्ता तक अपने दम पर पहुचा सकता है ? अमित शाह ने कहा था —की अब बिहार में भाजपा मिशन के साथ उतरेगी, गठबंधन के सहारे नहीं।” तो क्या 2025 वो साल होगा, जब भाजपा पहली बार बिहार में “साझेदारी से नहीं ” नहीं,“ खुद के दम से सरकार”बनायेगी ? अब तो आने वाला वक्त ही बताएगा —कि बिहार की राजनीति जात से बाहर निकलेगी, या फिर इतिहास खुद को एक बार फिर दोहराएगा।
भारत की आज़ादी के बाद से बिहार की राजनीति हर दौर में बदलती रही है। कभी यहाँ कांग्रेस का राज रहा, तो कभी समाजवादियों का, और अब तो जातीय समीकरणों ने पूरी तस्वीर ही बदल दी। कोई मुस्लिम यादव समीकरण से सत्ता की कुर्सी हासिल करना चाहता ....तो कोई लोगो को जातियों में बांटकर बिहार का किंग बनान चाहता है ... नेता यहाँ मुद्दों पर नहीं .. जातियों पर चुनाव लड़ रहे है ... “कभी बिहार में कहा जता था की — ‘जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू।’ आज वही कहानी, वही राजनीति दोहराने की कोशिश हो रही है ... बस किरदार बदल गए हैं। लालू की जगह अब मंच पर हैं उनके बेटे — तेजस्वी यादव। है तेजस्वी यादव अपने पिता के पदचिह्नों पर चल रहे हैं — और 2025 के बिहार में तेजस्वी यादव,उसी ‘माय समीकरण’ के जरिये बिहर जितने की कोशिश में है... लेकिन बिहार का आम आदमी किस हाल में जी रहा है .. इस बात की किसी भी नेता कोई चिंता नहीं है चिंता है तो सिर्फ कुर्सी की ..तीन दशक बीत गए… नेता बदले, गठबंधन बदले, लेकिन हालात आज भी जस का तस है ....
आंकड़े बताते हैं: की आज भी 33% बिहारी गरीबी में जी रहे हैं —यानी हर तीसरा व्यक्ति गरीब है। 2005 में जो बेरोज़गारी 9%थी आज 2024 में ये बढ़कर 13% हो चुकी है। यानि लाखों बिहारी नौजवान आज भी दिल्ली, पंजाब, गुजरात की फैक्ट्रियों में ‘मज़दूर’ कहलाने को मजबूर हैं। ये उसी बिहार के आँकड़े…जहाँ सियासत के झंडे ऊँचे हैं, पर जनता अब भी झुकी हुई है। यहाँ नौकरियाँ नहीं सिर्फ़ वादे मिलते हैं।” और इसकी बानगी बिहार चुनावो में आपको दिख भी रही होगी .
बिहार की सियासत में सबकुछ बदला —बस एक चीज़ नहीं बदली… सत्ता पाने की भूख। और अब बिहार एक बार फिर नए राजनीतिक प्रयोग की तरफ़ बढ़ रहा है। अब बिहार एक नए मोड़ पर खड़ा है। कांग्रेस सिमट चुकी है, लालू का करिश्मा फीका पड़ चुका है,नीतीश की चाल अब थक चुकी है।..... और अब बिहार की जनता एक नए लीडर की तलस में है जो बिहार को नई उचइयों तक लेकर जाए ...
आज भी बिहर — में जाती एक बड़ा फैक्टर है, लेकिन रोजगार, शिक्षा और पहचान की राजनीति धीरे-धीरे उसे काट रही है।” तेजस्वी यादव उसी M + Y समीकरण को फिर से जीवित करने की कोशिश में हैं — जिसके दम पर लालू यादव कई साल बिहर के सीएम रहे ..लेकिन भाजपा उसे ‘H + D’ (Hindutva + Development) से तोड़ने में लगी है। नीतीश, जो कभी किंग थे, अब सिर्फ़ किंगमेकर रह गए हैं।

