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12 जून 1975... इलाहाबाद हाईकोर्ट का कोर्टरूम नंबर 24!

Jun 20, 2025 | 6/20/2025 03:05:00 AM WIB Last Updated 2025-06-20T11:09:46Z

12 जून 1975... इलाहाबाद हाईकोर्ट का कोर्टरूम नंबर 24। एक तरफ न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा अपनी कुर्सी पर बैठे थे, और दूसरी तरफ देश की सबसे ताकतवर नेता—प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी—अदालत के कठघरे में मौजूद थीं। कोर्टरूम में मौजूद हर पत्रकार, हर वकील, और हर नागरिक जानता था कि आज का ये जजमेंट सिर्फ इंदिरा गांधी के राजनीतिक भविष्य का नहीं, बल्कि यह देश की राजनीतिक व्यवस्था की जड़ें हिला सकती है। मीडिया के कैमरे, जिनकी संख्या उस दौर में सीमित थी, कोर्ट के बाहर उस ऐतिहासिक पल को दर्ज करने के लिए तैयार खड़े थे। यह पल केवल एक कानूनी फैसले का नहीं, भारतीय इतिहास की धुरी बदल देने वाले समय का था। लेकिन उस दिन कोर्ट रूम नम्बर 24 में क्या हुआ, क्यों इंदिरा गांधी को इमरजेंसी लगानी पड़ी—इसे समझने के लिए हमें न केवल उस दिन की घटनाओं को, बल्कि उन तमाम परिस्थितियों को भी समझना होगा जो इस ऐतिहासिक फैसले की ओर ले गईं। यह कहानी सिर्फ अदालत के एक फैसले की नहीं है, यह कहानी है—लोकतंत्र और सत्ता के बीच संघर्ष की, एक न्यायाधीश के साहस की, और उस दौर की जब संविधान की आत्मा को चुनौती दी गई थी। यह वह सुबह थी, जब न्याय की कुर्सी ने सत्ता की सबसे ऊँची कुर्सी को झुकने पर मजबूर कर दिया।


इस कहानी की शुरुआत होती है 24 मार्च 1971 की उस सुबह से जब रायबरेली लोकसभा सीट पर चुनाव हुए। चुनाव का परिणाम आया और इंदिरा गांधी भारी मतों से विजयी हुईं। लेकिन यह जीत जितनी बड़ी थी, उतना ही बड़ा था उस पर उठे सवालों का साया। यह वह दौर था जब इंदिरा गांधी को अजेय माना जाता था। बांग्लादेश युद्ध की जीत, गरीबी हटाओ का नारा, और उनके करिश्माई नेतृत्व ने उन्हें जन-नायिका बना दिया था। लेकिन राजनीति में हर विजय के पीछे एक असहमति की आवाज़ भी होती है। इस बार यह आवाज़ थी—राज नारायण की। राज नारायण, एक जुझारू और तेज़ तर्रार समाजवादी नेता थे। जिन्होंने इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा, वे हार तो गए, लेकिन झुके नहीं। उनका आरोप था कि चुनाव में बड़े पैमाने पर धांधली हुई है। सरकारी मशीनरी, प्रशासनिक तंत्र और संसाधनों का दुरुपयोग किया गया है। उन्होंने दो गंभीर आरोप लगाए: पहला, इंदिरा गांधी ने अपने सरकारी सचिव यशपाल कपूर को उनके नामांकन से पहले ही चुनाव प्रचार में लगा दिया, जो सरकारी सेवा में थे; और दूसरा, उन्होंने सरकारी जीपों और संसाधनों का निजी प्रचार में उपयोग किया।


क्या आपने कभी ऐसा सोचा है कि एक हारने वाला प्रत्याशी अपनी हार को अदालत तक ले जाए, और वहां ऐसा तूफ़ान खड़ा हो जाए कि पूरा देश उसकी तरफ देखने लगे? लेकिन ऐसा हुआ। राज नारायण ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की। उनकी यह लड़ाई सिर्फ व्यक्तिगत बदले की नहीं थी—यह एक लोकतांत्रिक मूल्य की रक्षा की कोशिश थी। यह एक ऐसी लड़ाई बन गई, जिसमें सवाल था कि क्या प्रधानमंत्री कानून से ऊपर हैं? क्या प्रधानमंत्री कोर्ट के फैसलों को कुछ नहीं समझती हैं? यह मामला धीरे-धीरे सिर्फ एक चुनावी याचिका नहीं रहा, बल्कि संविधान, नैतिकता, और सत्ता के दायरे को चुनौती देने वाला प्रकरण बन गया। और यहीं से शुरू होता है वो सिलसिला, जो कोर्ट रूम नंबर 24 तक पहुंचता है। धीरे-धीरे यह मुकदमा एक व्यक्ति बनाम प्रधानमंत्री नहीं रह गया—यह बन गया संविधान बनाम सत्ता।


अब आप सोचिए, क्या वाकई एक प्रधानमंत्री कोर्ट में कटघरे में खड़ी हो सकती हैं? राज नारायण ने न सिर्फ यह सवाल उठाया, बल्कि उसे कानूनी मैदान में चुनौती भी दी। इलाहाबाद हाईकोर्ट में केस की सुनवाई शुरू हुई। केस की सुनवाई के साथ ही हर दिन हाईकोर्ट में इतिहास लिखा जा रहा था। बहसें तीखी होती जा रही थीं।

राज नारायण की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता शांति भूषण ने यह स्पष्ट किया—“यह सिर्फ चुनाव की वैधता का मामला नहीं है, यह लोकतंत्र की आत्मा की परीक्षा है।” वे बार-बार इस बात को दोहराते रहे कि कैसे सरकारी साधनों, अधिकारियों और संसाधनों का उपयोग इंदिरा गांधी ने अपने चुनाव प्रचार में किया। वे कहते हैं, “जब एक सत्ताधारी प्रधानमंत्री चुनाव में अपने पद का दुरुपयोग करती हैं, तो यह सिर्फ एक नियम का उल्लंघन नहीं, बल्कि लोकतंत्र पर हमला होता है।”


सुनवाई के दौरान कई चौंकाने वाले नाम सामने आते हैं— पी.एन. हक्सर, जो खुद प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव थे। विपक्ष के बड़े नेता—आडवाणी, चरण सिंह, मोरारजी देसाई— एक-एक कर सब बयान देते हैं। हर दिन अदालत में गवाही होती थी—लेकिन यह केवल कानूनी दस्तावेज़ों का आदान-प्रदान नहीं था। यह देश की आत्मा की लड़ाई थी। लेकिन सबसे ऐतिहासिक मोड़ तब आता है, जब खुद प्रधानमंत्री को कोर्ट में बुलाया जाता है। यह भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार घट रहा था। 18 और 19 मार्च 1975 को इंदिरा गांधी अदालत में पेश होती हैं। अब ज़रा सोचिए... जब देश की सबसे ताकतवर नेता, जिनकी एक आवाज़ पर संसद हिल जाती है, वह न्यायाधीश के सामने बैठती हैं, तो यह दृश्य सिर्फ गवाही का नहीं रह जाता—यह दृश्य सत्ता के जवाबदेह होने की मिसाल बन जाता है।


आमतौर पर गवाह खड़े होकर अपनी गवाही देते हैं, लेकिन उन्हें विशेष रूप से एक मंच पर कुर्सी दी जाती है, ठीक उस स्तर पर जहाँ जज बैठते हैं। यह एक प्रतीक था—कि सत्ता और न्याय अब आमने-सामने हैं। यह सिर्फ एक गवाही नहीं थी, यह भारतीय इतिहास के सबसे गंभीर टकरावों में से एक था। फिर आती है वह ऐतिहासिक तारीख—12 जून 1975—जब जस्टिस जगमोहनलाल सिन्हा ने अपना फैसला पढ़ना शुरू करते हैं—“श्रीमती इंदिरा गांधी का निर्वाचन रद्द किया जाता है। उन्हें छह वर्षों के लिए किसी भी निर्वाचित पद के लिए अयोग्य ठहराया जाता है।” यह सिर्फ एक कानूनी आदेश नहीं था, यह सत्ता के शिखर को हिला देने वाली घोषणा थी। अदालत का यह निर्णय जैसे पूरे देश में बिजली की तरह फैल गया। रेडियो, अखबार, टेलीग्राम—हर माध्यम पर एक ही बात: प्रधानमंत्री को न्यायालय ने दोषी पाया। सवाल उठने लगे—अब क्या? क्या इंदिरा गांधी इस्तीफा देंगी? क्या सत्ता में बदलाव होगा? या क्या एक नई राजनीतिक क्रांति का जन्म होगा? ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि जब एक सत्तारूढ़ प्रधानमंत्री को कोर्ट द्वारा पद से हटाया गया हो। देशभर में इस फैसले की चर्चा फैल गई। संसद की दीवारों से लेकर चाय की दुकानों तक, हर जगह एक ही बात हो रही थी—‘अब क्या होगा?’ कुछ इसे न्याय की विजय मान रहे थे, तो कुछ इसे लोकतंत्र पर हमला कह रहे थे।


इंदिरा गांधी को सुप्रीम कोर्ट से 20 दिन की राहत मिलती है, लेकिन इस बीच उनके सलाहकार और सहयोगी स्थिति की गंभीरता को भांप चुके थे। प्रधानमंत्री निवास, सफदरजंग रोड पर एक गहरी रणनीति बन रही थी। उनके सबसे करीबी राजनीतिक रणनीतिकार, सुरक्षा सलाहकार, और संजय गांधी जैसे युवा, जो सत्ता के 'नए' प्रयोग की तैयारी कर रहे थे।


उस समय इंदिरा गांधी तीन स्तरों पर काम कर रही थीं—कानूनी मोर्चा: उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में तुरंत विशेष अनुमति याचिका दायर करवाई और 20 दिन की ‘आंशिक राहत’ ली। राजनीतिक मोर्चा: उन्होंने कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को एकत्र कर विश्वास में लिया और उन्हें यह विश्वास दिलाया कि यह साज़िश है। प्रशासनिक मोर्चा: सबसे चुपचाप लेकिन निर्णायक तैयारी हो रही थी—आपातकाल लागू करने की। उनके आसपास जो हलचल थी, वह किसी भी लोकतांत्रिक सरकार की सामान्य प्रतिक्रिया नहीं थी। यह तैयारी थी लोकतंत्र को 'ठहराने' की। प्रधानमंत्री निवास के कमरे, जो आमतौर पर शांत रहते थे, अब नीति, क़ानून और नियंत्रण की योजनाओं से गूंज रहे थे। ठीक 13 दिन बाद, 25 जून 1975 की रात, राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद आपातकाल के आदेश पर हस्ताक्षर करते हैं। उसी रात जयप्रकाश नारायण ने रामलीला मैदान से जनता को संबोधित करते हुए इंदिरा गांधी से इस्तीफे की मांग की थी। लेकिन सरकार ने अलग ही रास्ता चुना। देश की जनता को रेडियो पर इंदिरा गांधी की आवाज़ सुनाई देती है—“देश की अखंडता खतरे में है... हमें कठोर कदम उठाने होंगे।” इसके साथ ही संविधान का अनुच्छेद 352 लागू होता है, और भारत में आपातकाल लग जाता है। आपातकाल लागू होते ही भारत का लोकतंत्र जैसे एक अलार्म मोड में चला जाता है। राजनीतिक विरोधियों को गिरफ्तार कर लिया जाता है—जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी जैसे तमाम नेता जेल भेज दिए जाते हैं। प्रेस पर सेंसरशिप लागू होती है। देश की आवाज़ पर ताले जड़ दिए जाते हैं। अखबार खाली कॉलम छापने लगते हैं। सड़कों पर सन्नाटा, और संसद में तानाशाही का साया दिखने लगता है।


आपातकाल —25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक लागू रहा, कुल 21 महीने। इस दौरान लगभग एक लाख राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाला गया, प्रेस की स्वतंत्रता को कुचल दिया गया, और संविधान में 42वाँ संशोधन कर कई अधिकार सीमित कर दिए गए। न्यायपालिका को कमजोर करने की कोशिश हुई, और सत्ता का केंद्र प्रधानमंत्री कार्यालय बन गया। लेकिन जो संशोधन इंदिरा गांधी कर रही थीं, उसकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा था—सुप्रीम कोर्ट का वो फैसला जिसे वर्ष 1973 में 'केशवानंद भारती केस' में दिया गया था—जिसे 'बेसिक स्ट्रक्चर डॉक्ट्रिन' कहा गया। इस फैसले में कहा गया कि संसद संविधान में संशोधन तो कर सकती है, लेकिन वह संविधान की आत्मा यानी मूल ढांचे को नहीं बदल सकती। यह सिद्धांत, आपातकाल के समय एक 'संवैधानिक कवच' बन गया। जब 1976 में इंदिरा गांधी ने 42वां संशोधन के जरिए संसद को सर्वशक्तिमान बनाने की कोशिश की, तब इसी सिद्धांत ने लोकतंत्र की अंतिम रक्षा की।


आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी सरकार ने जो संविधान में 42वाँ संशोधन (2 नवंबर 1976) को किया, उसे अब तक का सबसे बड़ा और सबसे विवादास्पद बदलाव माना जाता है। इस बदलाव के ज़रिए संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ जैसे शब्द जोड़े गए, और साथ ही न्यायपालिका, प्रेस और राज्यों की आज़ादी को काफी हद तक कम कर दिया गया। सीधे शब्दों में कहें तो, सरकार ने अपने हाथ में बहुत ज़्यादा ताकत ले ली थी। लेकिन 1977 में जब चुनाव हुए, तो कांग्रेस बुरी तरह हार गई। खुद इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी भी चुनाव हार गए। और जनता पार्टी की सरकार बनी—यह भारतीय लोकतंत्र का पुनर्जन्म था।



जनता पार्टी ने 44वें संशोधन के जरिए कई ऐसे बदलाव वापस लिए, जिन्हें इंदिरा गांधी इमरजेंसी के दौरान लाई थीं। उन्होंने तय किया कि अब बिना संसद की मंज़ूरी के कभी भी आपातकाल नहीं लगाया जा सकेगा। इन घटनाओं ने ये साफ कर दिया कि संविधान सिर्फ एक किताब नहीं है, बल्कि ये उस दीवार की तरह है जो लोकतंत्र को गिरने से बचाती है।


अब लौटते हैं जस्टिस सिन्हा पर—जिनके एक आदेश ने देश में इमरजेंसी की नींव रखी। 1996 में एक इंटरव्यू में जस्टिस सिन्हा ने कहा था, “मेरे लिए यह एक सामान्य मामला था। मैंने फैसला कानून के अनुसार सुनाया।” लेकिन यह फैसला सामान्य नहीं था। इसने एक सीमा रेखा खींच दी थी—कि चाहे सत्ता कितनी भी बड़ी हो, न्यायपालिका उससे ऊपर खड़ी हो सकती है।


आज, जब हम 2025 में खड़े हैं, यह सवाल फिर सामने आता है—क्या लोकतंत्र सिर्फ चुनाव जीतने का नाम है? क्या सत्ता को जवाबदेह ठहराना अब भी संभव है? क्या न्यायपालिका स्वतंत्र है? यह कहानी सिर्फ इतिहास नहीं है, यह चेतावनी भी है। जब-जब लोकतंत्र डगमगाएगा, 12 जून 1975 की वह सुबह फिर याद की जाएगी—जहाँ एक न्यायाधीश ने सत्ता के सामने संविधान को खड़ा कर दिया था।

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